परिवर्तन

 दो चोटियों में खिलखिलाती हंसी

आज जूड़े की मायूसी में कैद है,

नन्हें नन्हें दूर भागते बेफ़िक्र नग्न पैर

आज छन छन करते, दबे छिपे सुनाई पड़ते हैं।

कान के पीछे काला टीका माँ लगाती थी

अब नज़र लगने लायक बची नहीं

ऐसा नज़रें बोलती हैं।

मज़े से भर पेट खाकर पेट पकड़ कर टहलती थी

आज न भोजन की सुध लगती है

न कोई कहता है और खालो!

Comments

  1. बड़े हो जाने का दर्द ही ऐसा होता है। बहुत खूब।

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    1. सही कहा। शुक्रिया।

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