मैं अपने पिता को नहीं जानता
जब मैं रात को रोता था,
मां बाहों में समेट लेती थी,
पिता खुद को ही समेट लेते थे,
मैं चुप हो जाता था।
मैं पिता के साथ खेलता था,
उनकी दाढी चुभती थी,
मुंह से बदबू आती थी,
मेरी मां थक जाती थी,
इसलिए इस खेल की बारी आती थी।
मेरी मां रोती थी,
मेरे पिता चिल्लाते थे,
आजीब से हिलते-डुलते शरीर से,
बुरी सी बदबू निकालते मूंह से,
पटक देते थे मुझे,
सहमा देते थे मुझे,
डरा देते थे मुझे।
पीढा बढने लगी,
मैं भी बढने लगा,
मां का साहस भी बढने लगा।
एक दिन फिर उसी बदबू ने प्रवेश किया,
मां ने चंडी का रूप लिया,
स्वामिनी बनी कपालिनी ने संहार किया।
मैं रोता रहा, मां रोती रही,
लहू बहता रहा, मां पोंछती रही,
हम डरते रहे,
जीवंत छिपे रहे।
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