आज भी याद है वो दिन, जब मेरे नन्हें कदम उस ओस से भरी फसल पर पड़े थे।
जहां क्षितिज तलक फैले खेत खलिहान थे, जिनमे उगते फल सब्जियां और खिलते सुंदर फूल थे।
लेकिन जैसै जैसे हम बड़े हुए, वो बूढ़ा हुआ, असहाय हुआ, वो रोता रहा लेकिन हम सुन न सके।
देर सवेर खबरें आई लेकिन हम पढ़ न सके क्योंकि खबर न कभी दिखी न सुनी।
बदलती तस्वीर को देख न सके क्योंकि कागजी कार्यवाही हुई जमीनी नहीं।
हम नें सन्देश भेजे लेकिन जवाब पढ़ न सके क्योंकि वो कभी आए ही नहीं।
रोज एक अजीब सी उठती टीस है।
कि वो जो कभी घर हुआ करता था, बिक रहा है थोक के भाव।
अपनी ही ज़मीन पर मजदूर बने हम किसान कर रहे हैं आत्महत्या।
बिखर गया वो पेड़ों की छांव में छुपा हमारा घर, हवा हो गयी सब कहानियां।
रह गए हैं तो बस बंजर जमीन से ख्वाब...
हमनें मालिकों से पूछा कि ये क्यों, कैसे और कब हुआ ?
वे बोले एक तूफान आया था जिसका नाम था - व्यापार...
हमारी ज़ुबान ने कहा वो व्यापार नही है अंधकार
जिसमे खो गया है हमारा घर-बार, जिसकी आड़ में फूलता है इनका मुनाफा और कारोबार
जिन्हें नहीं दिखा हमारा उजड़ता हुआ गांव, हमारे खेत।
बुझता हुआ चूल्हा, भूखे पेट सोते बच्चों की कहार, पलायन करते नौजवान।
दहेज के बोझ तले ब्याहति बेटी।
मैं कहां जाऊं कि चोटिल हुई है मेरी अस्मिता, लोग कहते हैं मैं किसान हूं लेकिन मैं कहता हूं कि मैं तो वोट बैंक हूं,
किसान तो मैं किताबों में हूँ, कविताओं में हूँ।
न अब ये मेरा गांव है और न मैं इसका किसान हूं।
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