हां बहुत...
चाहें जो भी हो, बातों की कोई हद होती है क्या?
ये ज़ुंबान शांत रहती है क्या?
बस में सफ़र करती बूढी महिला हो,
ट्रेन में सफ़र करता कोई यात्री हो।
यूं ही किसी कार्यक्रम में टकराया कोई श्रोता हो,
यूं ही किसी मसले पर कोई रोता है,
सभी मेरे अपने हैं, खोए से सपने हैं!
बात तो कहीं भी हो सकती है...
विचार मिलना बाद की संगत है,
बांचना ही अमन की संगत है।
फ़ोन पर बात फ़िकी लगती है,
चहरे से चहरे की रौनक मीठी लगती है।
मैं कहानी कह देती हूं अपनी...
ताकि सुन सकूं ग़मगीन ज़ुबानी उनकी।
कोई बोर हो गया तो मेरा शोर हो गया,
कि पता चला फिर एक बार, ये मेरा वहम हो गया।
लगी एक बार फिर मौका परस्त बातूनों के हाथ प्यारी कहानी मेरी,
बनी एक बार फिर हास्यास्पद मुद्दा कहानी मेरी।
Wah ji
ReplyDeleteशुक्रिया
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