किताबें करती हैं बातें
बीते जमानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की कल की
एक-एक पल की।
खुशियों की, गमों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की।
सुनोगे नहीं क्या
किताबों की बातें?
किताबें, कुछ तो कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
किताबों में चिड़िया दीखे चहचहाती,
कि इनमें मिलें खेतियाँ लहलहाती।
किताबों में झरने मिलें गुनगुनाते,
बड़े खूब परियों के किस्से सुनाते।
किताबों में साईंस की आवाज़ है,
किताबों में रॉकेट का राज़ है।
हर इक इल्म की इनमें भरमार है,
किताबों का अपना ही संसार है।
क्या तुम इसमें जाना नहीं चाहोगे?
जो इनमें है, पाना नहीं चाहोगे?
किताबें कुछ तो कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं!



ये कविता पहली बार जब मैंने पढ़ी तब पहली बार सफ़दर हाश्मी से परिचय हुआ। फ़िर मेरी जिज्ञासा के जो पुल बंधने लगे उन्हें में आज तक रोक नही पायी हूँ। वो बात और है कि मैं उन्हें आज भी ज़्यादा न पढ़ पायी हूँ और न ही उनके नाटकों के बारे में जान पायी हूं। पर मेरे ज़हन में उनके लिए जगह बनाने को आज के दिन का किस्सा ही काफ़ी था। इतनी शिद्दत किसी चीज़ के लिए आपको जब होती है तब आप अपनत्व से भी दूर हो जाते हैं, आप सबके हो जाते हैं। मेरा सफ़र वामपंथी विचारधारा को समझने और उसमें रुचि रखने से शुरू हुआ। हर विचारधारा में एक द्वंद्व का दौर आता है। द्वंद्व शब्द आज बड़े दिन बाद अमित  से सुना। शायद ये सही शब्द होगा जिसके बूते पर मैं ये कह सकती हूं की मैं प्रभावित थी लेकिन उसे कभी अपना नही पायी क्योंकि मैं किस यक़ीन से आज के दौर में रंग बदलते इंसानों पर विश्वास करूँ? आज जो मेरे हैं कल किसी और के हो जाएंगे !! लेकिन फिर भी समाज का वर्गीय असामान्य विभाजन मेरे दिल के क़रीब है। कभी कभी उससे मैं भी गुज़रती हूँ और कभी कबार अपने इर्द गिर्द उस भेदभाव को महसूस भी करती हूँ। ये लड़की यहां मेरी परछाईं ही तो है, जिसका सफ़र कविताओं को पढ़कर शुरू हुआ और मेरे लिए इससे गर्व की बात और क्या होगी कि मैंने पहली बार जब नन्हीं जान के दो हाथ नाटक में अम्मा बेगम का किरदार किया तो वो स्टूडियो सफ़दर में पहली बार खेला गया। मेरे नए साल का पहला दिन भी आज शहादत दिवस के समारोह में बीता। हालांकि मैं इन सब बातों में विश्वास नही करती लेकिन मैं भी 21वीं शताब्दी की सोशल चिड़िया के खेमे में हूँ तो शायद उस हक़ से इस ख़ुशी को ज़ाहिर कर सकती हूं। सफ़दर ज़िंदा हैं, हल्ला बोल।
हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है- शैलेन्द्र।

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